उम्र के उस पार चलें हम,जहाँ ना रहे ये शब्दों का भ्रम,
जहाँ नयन गगन-से स्वच्छ हों,प्रेम स्वयं हो दिव्य परम।
जहाँ न मन के ताप जलें, तन-चित में कोई द्वंद न हो,
जहाँ चिरंतन शांति बरसती , सुधा-सा हर स्पंदन हो।
संध्या के स्वर में हो आलोक,संधान जहाँ अन्तः मिलते,
तेरे मेरे अंतर के तट पर, स्वप्न सुगंधित पंख है खिलते।
वृक्षों की छाया में बैठे,नीरवता का प्रणयमुग्ध गान सुनें,
तेरे अधरों के सौरभ से, ये मंदाकिनी के तारागण झुकें।
हरसिंगार की गंध लिये, मेरे ये कुंतल जब मुक्त लहराएँ,
समीर थमे, दिशाएँ रुकें, वसुधा मही निज स्नेह लुटाए।
तेरी दृष्टि में ज्योति बसे ,मेरे हृदय में अनुराग-दीप जले,
जिसकी लौ में मिट जाए मैं , तू भी बूँद बन मुझमें ढले।
न कोई नाम शेष बचे, न ‘मैं’, न ‘तू’ — बस प्रेम ही बहे,
सप्तसिन्धु-सा शांत प्रवाह,कोई द्वेष इसे छू भी न सके।
न भू के बंधन, न देह रहे,न काल के खंडित बिम्ब भरें,
बस आत्मा की ओस बने,हम शाश्वतता के स्वर से झरें।
हिमगिरि शिखरों पर रवि की रश्मि उतरती हो चुपचाप,
वैसे तेरे स्नेह-पटल पर मन की आभा का हो आलाप।
हर पल हो जैसे ऋतुराज,हर क्षण प्रेम-वर्षा की हो रात,
साँझ न हो,न भोर कभी हो मिलन का लयबद्ध प्रपात।
चलो, उस पार चलें चिरायुःजहाँ न युग,न यामिनी बाँधे,
जहाँ प्रेम का अंजन आँचल,हर पीड़ा की परिधि बांधे।
हम दो नहीं — बस एक रहें, जिसमें न कोई भी दूरी हो,
न कोई प्रश्न, न उत्तर हो,ऋत्विजा बस प्रेम समर्पित हो।
2 Comments
प्रेम की अद्भुत अभिव्यक्ति ।
आप का बहुत बहुत धन्यवाद कुसुम जी